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हास्य-व्यंग्य >> श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य गीत

श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य गीत

प्रेमकिशोर

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2611
आईएसबीएन :81-7721-081-5

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ हास्य व्यंग्य गीत.....

Shreshth Hashya-Vyangya Geet

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज परिवार में, समाज में, देश में, विश्व में-अर्थात हर तरफ इतनी विसंगतियाँ व विडंबनाएँ बिखरी हुई हैं कि मनुष्य का हँसना दूभर हो गया है। नाना प्रकार के तनाव, चिन्ताएँ आज इंसान को घेरे हुए हैं। अजीब भाग दौड़ हो रही है। विकट आपा-धापी मची हुई है। सबकुछ बंजर हुआ जाता है। ऐसे महौल में गीतों में यह सामर्थ्य है कि वह उदास चेहरों पर ठहाकों के फूल खिला दे। और कटाक्ष करने पर उसके तो क्या नाते-रिश्तेदार, क्या नेता-अभिनेता, क्या कर्मचारी-अधिकारी-यानी परिवार-समाज, देश-विश्व का कोई ऐसा सदस्य नहीं, जो गीत के व्यंग्य-बाणों से बच सके। बुराइयों पर बड़े सलीके से वार करते हैं ये श्रेष्ठ हास्य-व्यंग्य गीत।

गीत-गुब्बार


आदि काल से गीत की धारा तमाम सुख-दु:ख, हास-परिहास आदि को समेटती हुई निरंतर निर्बाध गति से प्रवाहित होती चली आ रही है। गीत ने वीरगाथा काल में रक्तशिराओं को जहाँ जोश से भरा, वहीं रीतिकाल में राजा-महाराजाओं की ‘मक्खनबाजी’ के साथ श्रृंगार के नए-नए आयाम उद्धाटित किए। भक्तिकाल में भक्ति के ऐसे-ऐसे पद रचे गए जिनकी बराबरी आज तक कोई नहीं कर पाया है। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को नई चेतना देने का काम जहाँ देश-प्रेम के गीतों ने किया वहीं ‘छायावाद’ के समय गीत ने गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों को स्वयं में ढाला। बहरहाल, गीत आज हर रंग में रँगा हुआ हमारे सामने प्रस्तुत  है।

कुछ समय पहले तक जहाँ कवि सम्मेलनीय मंच पर भी गीत और केवल गीत की ही तूती बोलती थी, उसे आज उथले हास्य-व्यंग्य और पैरोडियों ने भले ही कुछ चोट पहुँचाई हो, पर गीत का जादू अभी भी सिर चढ़कर बोलता है। गीत की आन, बान, शान का डंका अभी भी बज रहा है और रहती दुनिया तक बजता रहेगा।
कहना न होगा कि फिल्मों ने आधुनिक काल में गीत को जितना लोकप्रिय बनाया उतना शायद अन्य किसी माध्यम ने नहीं। और तो और, तमाम फिल्में ऐसी आईं, जिन्हें उनके कर्णप्रिय गीतों ने कालजयी बना दिया। काश, यह साहित्यकता और स्तरीयता बरकरार रह पाती ! ‘परदेवालों’ ने गीत को नंगा कर दिया है।
जहाँ तक गीत की सामर्थ्य की बात है, यह पत्थर में भी फूल उगा सकता है, रेत को निचोड़कर पानी निकाल सकता है। कवि सम्मेलनों के मंच से असंख्य बार मैंने इसका साक्षात्कार किया है। गीत जब करुणा परोसता है तो सुनने वाले का रोम-रोम झूम उठता है। गीत जब ओज का आवरण पहनता है तो श्रोताओं की नसें फड़क उठती हैं।

आज परिवार में, समाज में, देश में, विश्व में-अर्थात हर तरफ इतनी विसंगतियाँ व विडंबनाएँ बिखरी हुई हैं कि मनुष्य का हँसना दूभर हो गया है। नाना प्रकार के तनाव, चिन्ताएँ आज इंसान को घेरे हुए हैं। अजीब भाग दौड़ हो रही है। विकट आपा-धापी मची हुई है। सबकुछ बंजर हुआ जाता है। ऐसे महौल में गीतों में यह सामर्थ्य है कि वह उदास चेहरों पर ठहाकों के फूल खिला दे। और कटाक्ष करने पर उसके तो क्या नाते-रिश्तेदार, क्या नेता-अभिनेता, क्या कर्मचारी-अधिकारी-यानी परिवार-समाज, देश-विश्व का कोई ऐसा सदस्य नहीं, जो गीत के व्यंग्य-बाणों से बच सके। बुराइयों पर बड़े सलीके से वार करते हैं ये।

विविध रसों के साथ गीत के तमाम संकलन हमारे सामने आए हैं। सोचा, क्यों न केवल हास्य एवं व्यंग्य को लेकर गीतों की एक पुस्तक तैयार की जाए ! ....और इसी विचार की परिणति है यह पुस्तक- ‘रंगारंग हास्य-व्यंग्य गीत’। पुस्तक में जहाँ खालिस हास्यपरक गीत हैं वहाँ सतही व गंभीर मारक व्यंग्य गीत भी। अर्थात् हास्य एवं व्यंग्य का प्राय: हर रंग आपको इन गीतों में मिल जाएगा। हो सकता है, दो-चार गीतों में आपको ऐसा लगे कि इनमें ‘हास्य- व्यंग्य कहाँ हैं ? तब गंभीरता से अवलोकन करने पर आपको वहाँ भी कुछ-न-कुछ व्यंग्य अवश्य पिरोया हुआ मिलेगा।
मेरा यह प्रयास आपके मन को कहाँ तक बाँध पाया ? ये गीत आपको कितना गुदगुदा पाए ?-अगर कहेंगे तो खुशी होगी।
इंतजार है !

अशोक अंजुम

अखिलेश कुमार निगम ‘अखिल’

यह मिलन कहाँ ?


एक बंधन है एक बेड़ी है,
यह मिलन कहाँ ? रणभेरी है।

तिलक हुआ यह पहला फंदा
आजादी का झुक गया झंडा
वह रात गुलामी की आई
जब द्वार बजी थी शहनाई-
धुन सप्त सुरों की छोड़ी है
यह मिलन कहाँ ?......

थे नभ के आजाद परिंदे,
पड़ गए जीवन भर के फंदे,
ब्राह्मण जन फिर करें विचार
करना सात समुंदर पार-
जो सात अग्नि की फेरी है
यह मिलन कहाँ ? रणभेरी है।

                       


अल्हड़ बीकानेरी

कुदरत का है कमाल

बस्ती के चौकीदार का चोरों से मेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।

धरती पे अपराधी की आँधी है आजकल,
बुलबुल बटेरदास की बाँदी है आजकल,
चमगादड़ों की हर जगह चाँदी है आजकल,
पायल खुरों में भैंस ने बाँधी है आजकल,

सिर में छछूँदरों के चमेली का तेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।

नंगी हुई है देखिए, परदानशीं की पीठ,
‘कैफे’ में ‘डिस्कोथीक’ में खाली नहीं है सीट,
मर्दों को पीते देखकर माथा न अपना पीट,
नाइट क्लबों में औरतें पीने लगी हैं ‘नीट’,

व्हिस्की है ड्राईजिन है कहीं कॉकटेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।

गूँगा जो जन्म से है वो ठुमकी सुना रहा,
बहरों का झुंड झूम के ताली बजा रहा,
लँगड़ा मटक के मंच पे ठुमके लगा रहा,
अंधा उछल के सोनचिरैया दिखा रहा,

लूले ने कस के देखिए, तानी गुलेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।

गीदड़ यहाँ पे’ शेर की ओढ़े हुए हैं खाल,
देखा है हमने घोड़ों से बेहतर गधों का हाल,
कौआ लिये है चोंच में चमचम का पूरा थाल,
बल खा के लोमड़ी चली ‘मिस’ मोरनी की चाल,

उल्लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।

अनपढ़ यहाँ के बैल, अँगूठा है लोकतंत्र,
खच्चर यहाँ बिचौलिए, खूटा है लोकतंत्र,
गैंडों ने खूब रौंदा है, लूटा है लोकतंत्र,
सचमुच यहाँ का कितना अनूठा है लोकतंत्र,

साँड़ों को कोठियाँ हैं, बछेड़ों को जेल है,
कुदरत का है कमाल, मुकद्दर का खेल है।
 


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